Panchkarma

पंचकर्म विभाग :- भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद् नई दिल्ली के मानकों के अनुरुप महाविद्यालय में पंचकर्म विभाग पृथक से सुसज्जित एवं संचालित है। पंचकर्म विभाग का महाविद्यालय में अपना अध्ययन एवं चिकित्सा के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थान है। इस विभाग में पंचकर्म के अध्यययन/चिकित्सा हेतु विभागीय पुस्तकालय, दृश्य-श्रृव्य माध्यम, इलेक्ट्रोनिक बोर्ड एवं कम्प्यूटर मय इन्टरनेट आधुनिक सुविधा सम्पन्न ट्यूटोरियल कक्ष उपलब्घ है। पंचकर्म चिकित्सा का विशिष्ट केन्द्र होने के कारण सम्पूर्ण भारतवर्ष के साथ-साथ विदेशी पर्यटक भी उक्त चिकित्सा से लाभान्वित होते हैं। पंचकर्म क्या है ? पंचकर्म आयुर्वेद का शरीर शुद्धीकरण एवं दोषनिर्हरण का विशिष्ट चिकित्सा उपक्रम है, जिसमें पांच कर्म निर्धारित हैं, 1. वमन कर्म 2. विरेचन कर्म 3. बस्ति कर्म 4. नस्य कर्म 5. रक्त मोक्षण क्रमानुसार शरीर में उपस्थित विषाक्त द्रव्यों एवं दोषों का निर्हरण कर रोगमुक्त किया जाता है। परिणामतया स्वास्थ्य प्राप्त व्यक्ति के भविष्य में रोग होने की संभावना कम हो जाती है। दोषाः कदाचित् कुप्यन्ति जिता लग्घ्नपाचनैः। जिताः संशोधनैर्ये तु न तेषां पुनरुदभव्ः।। (च.स.सूं 16/20) अर्थात निष्कर्षतया पंचकर्म से शोधन के पश्चात् पुनः रोगोत्पत्ति नहीं होती है। उपरोक्त पांचो कर्म सम्मिलित या पृथक - पृथक, रोग एवं ऋतु के अनुसार स्वस्थ एवं आतुर में किये जाते हैं। वमनकर्म यह कफज एवं कफपित्तज रोगों में उपयोगी है इसमें औषधियुक्त स्नेह के द्वारा अभ्यान्तर एवं बाह्य स्नेहन तथा सर्वांग स्वेदन से दूषित दोष, विशाक्त द्रव्यों को आमाशय में लाकर वामक द्रव्यों द्वारा वमन कराकर शरीर को शुद्ध करते हैं। उपयोग- मुख्य रुप से कफज रोग जैसे-स्थौल्य, मैदोरोग, कास-श्वास, मधुमेह, त्वकरोग, अम्लपित्त, जीर्ण प्रतिशाय आदि में उपयोगी है। विरेचन कर्म यह पित्तज एवं पित्तकफज रोगों में उपयोगी है इसमें औषधियुक्त स्नेह के द्वारा अभ्यान्तर एवं बाह्य स्नेहन तथा सर्वांग स्वेदन से दूषित दोष, विषाक्त द्रव्यों को पक्वाशय में लाकर विरेचक द्रव्यों द्वारा दस्त कराकर शरीर के अद्योभाग को शुद्ध किया जाता है। उपयोग - मुख्य रुप से पित्तज व्याधियों जैसे-कामला,स्वेदाधिक्य, कुष्ठ रोग, शीतपित्त आदि में उपयोगी है। बस्ति कर्म बस्ति कर्म से मुख्य रुप से प्रकुपित वातदोष का शमन होता है इसमें अनुवासन बस्ति (स्नेह प्रधान) एवं निरुद्ध बस्ति(क्वाथ प्रधान)द्वारा औषध द्रव्यों को गुदमार्ग से प्रवेश कराकर दोषों को गुदमार्ग से ही बाहर निकाला जाता है। उपयोग :- यह वातज रोग जैसे- पक्षाघात, अर्घांगवात, अर्दित, कटिशुल, ग्रीवा ग्रह, संधिवात, वृद्धावस्था जन्यरोग आदि में करते हैं। नस्य कर्म (शिरोविरेचन)- इस विधि से शिर प्रदेश में उपस्थित दूषित वातादि दोष एवं विषाक्त मलो को नाक में औषध सिद्ध द्रव्यों को डालकर शिरः प्रदेश का शोधन किया जाता है। उपयोग :- इसका उपयोग षिरषुल, अधकपारी, अर्दित, बाल पकना-झड़ना, नेत्र/दंत रोग आदि में लाभकारी है। रक्तमोक्षण (रक्त निर्हरण) - इस विधि द्वारा शरीर में दूषित रक्त का सिराकध, जलौका आदि विधि द्वारा निर्हरण किया जाता है, जिससे रक्त जन्य विकार शान्त हो जातें है। इस तरह उपरोक्त पांच कर्मो के द्वारा सम्पूर्ण शरीर का शोधन हो जाने से स्वतः शान्त हो जाते हैं।
S.No. | Name of Faculty | Designation |
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1 | Dr. Shri Ram Sharma | Asso.Professor & H.0.D. |
2 | Dr. Rajeev Kumar Pandey | Lecturer |